आज कांति जी बहुत खुश थीं, पूरे 6 महीने बाद बेटा — बहू से मिलने जा रही थी।
नई नवेली बहू निर्मला, नौकरी के चक्कर में 4 दिन भी सास के साथ न रह सकी थी।शादी के तुरन्त बाद चली आई थी पति धीमेश के साथ उज्जैन।
कांति जी ने ट्रेन से उतरते ही टैक्सी ली और पँहुच गई बेटे के आशियाने।
किन्तु यह क्या? दरवाज़े पर बड़ा सा ताला लटक रहा था।कांति जी की खुशी पल भर में काफ़ूर हो गई। पर्स में से फोन निकाला ही था कि पड़ोसन की आवाज़ सुनाई पड़ी… “आप आ गईं? आईए! आईये!!!”
“निर्मला ऑफिस जाते समय चाबियाँ दे गई थी,सुबह ही बताया था उसने मम्मी जी आ रहीं हैं। आईये, हमारे साथ भी चाय पी लीजिए।”
कांति जी का मन तो क्षुब्ध हो गया था,लेकिन अभी 4 ही बजे थे। बहू पता नही कब तक लौटे। बेटा धीमेश भी टूर पर गया हुआ था सो मन मार कर बैग उठाया और चल दी पड़ोसन के साथ।
कुछ इधर — उधर की बाते की, चाय पी, और चाबी लेकर आ गईं वापस बेटे के घर में।शाम के सात बजे तक कांति का मन अत्यंत क्षुब्ध हो गया। बेटा तो टूर पर गया हुआ था लेकिन बहू को तो पता था कि वह आज आने वाली है। ऑफिस से छुट्टी तो ली नहीं, उल्टे समय से घर पर भी नहीं आई। चाबी पड़ोस में रख गई और फोन भी नहीं किया।
वह तो भला हो पड़ोसियों का, चाबी का भी बताया और चाय नाश्ता भी करवा दिया, वरना चार बजे पहुंचते ही चाय भी खुद ही बनाकर पीनी पड़ती।
ऑफिस में उन्हें हाल ही में प्रमोशन मिला था तो ज्वाइन कर के उन्होंने आठ दिन की छुट्टी ले ली थी, सोचा चलकर कुछ दिन नई बहू के पास रहूंगी तो सास — बहू जरा एक दूसरे को जान समझ लेंगी।लेकिन यहां तो आते ही बहू के निराले रंग दिखने लगे।
अपमान से वह एक दम क्षुब्ध सी हो गई। मन में पूर्वाग्रहों के कुछ नाग फन उठाने लगे। जरूर… जान बूझ कर ऐसा कर रही होगी ताकि मैं यहां से जल्दी चली जाऊं। पूर्णिमा की बहू ने भी ऐसा ही किया था, और करुणा की बहू तो ऑफिस का टूर है कह कर मायके ही जाकर बैठ गई थी।
मेरी बहू भी वैसी ही निकली, दुःख से उसकी आंखें भीग गईं। सोचने लगी यही सब होना था तो मैं आती ही नहीं।
बेटे के आते ही टिकट करा कर वापस चली जाऊंगी, लेकिन तब तक जाने और कैसी कैसी कड़वाहट, बेइज्जती सहनी पड़ेगी। इन्हीं विचारों में जाने कब उसकी हल्की आँख लग गई।
7:30 बजे आखिर बहू आ ही गई। दरवाजा खुलते ही — “सॉरी माँ!, बहुत शर्मिंदा हूँ, देर हो गई मोबाइल की बैटरी खत्म हो गई तो ऑफिस से निकलने के बाद फोन भी नहीं कर पाई।”
ये कहते हुए उसने एक बुके सास को बड़े प्यार से थमा दिया।
ताजे फूलों की खुशबू बिखेरता खूबसूरत बुके कांति जी के हाथ में था और बहू उन्हें प्रणाम करने के लिए झुकी हुई थी।
कांति जी का हाथ अनायास बहू के सर पर पहुंच गया, जिसे उन्होने प्यार से सहला भी दिया। अप्रत्याश्चित सुख का एक झोंका सास बहु को प्रेम से भर गया।
“और यह देखो मैं आपके लिए साड़ी लाई हूं, इसलिए देर हो गई। मुझे कोई साड़ी पसंद ही नहीं आ रही थी, आखिर बड़ा ढूंढने के बाद जाकर यह साड़ी पसंद आई।”
“बताओ ना मां, आपको पसंद आई की नहीं।” — बहू ने हाथ में पकड़े पैकेट से एक खूबसूरत सिल्क की साड़ी निकाल कर विमला के कंधे पर फैला दी।
भीगी आंखों और खुशी से रुंधें गले से उन्होंने कहा — “बहुत सुंदर है,बेटा!”
“सच में माँजी?” — बहु का चेहरा खिल गया।
“सारे काम आज पूरे कर के ऑफिस से आठ दिन की छुट्टी ले ली है मैंने।अब मैं पूरा समय आपके ही साथ रहूंगी,जाने कितनी बातें करनी है आपसे, जाने कितना कुछ सीखना है।चलिए! अब तो सबसे पहले मैं आपकी पसंद का खाना बनाने रसोईघर में जाती हूं। पहले चाय बनाके लाती हूँ, आप बैठो। बस पांच मिनट।” — नन्ही बच्ची की तरह वह उनके गले में बाहें डाल कर झूल गई।
उसकी पीठ पर स्नेह से हाथ फेरकर कांति को लगा वो अपनी बेटी के यहां आई है। वो भी साथ साथ रसोई घर की तरफ चल दी। मन के सारे पूर्वाग्रह खुशी के आसुओं के साथ धुलते जा रहे थे।