वह धीरे से बिना आहट के घर में घुसा तो देखता है पत्नी उसके “रास्ते में हूँ, बस पहुँचा” वाली बात को सच मान कर तीसरी बार खाना गरम कर इंतज़ार करते करते सो चुकी थी।
सीने पर डायरी औंधी पड़ी थी…कुछ पढ़ रही थी शायद…पलट कर देखा तो नज़र सबसे पहले शीर्षक पर पड़ी — “मेरे हिस्से का इतवार”। पढ़कर हँसी आ गई उसे।
अगली सुबह दिन चढ़े तक सोई रह गई वह। नींद खुली तो मोबाइल के अलार्म को सौ लानत भेजते हुए जल्दी से रसोई मे चाय नाश्ते के लिए भागी — भागी गई।
पर यह क्या…चाय नाश्ता दोनो तैयार थे। नाश्ते में उसकी पसंद का डोसा था। साथ में एक पर्चा रखा था जिसमे उसे नहाकर नाश्ता करने की हिदायत दी गई थी।वह याद करने लगी, आज कुछ है क्या?
बहुत याद करने पर भी उसे याद न आया। नहा धोकर अलमारी खोली तो कपड़ो के बीच में दूसरा पर्चा था जिसमें नाश्ता कर के टीवी देखने का आदेश था और बच्चो की चिंता न करने की गुज़ारिश क्योकि वह नानी के पास गए है। उफ्फ, ये इंसान क्यूँ कर रहा ऐसा, कब समझ पाऊँगी इसे।
इतने में दरवाज़े की घंटी बजी। जिसके इंतजार में उसने लपककर दरवाजा खोला था वहीं बाहर खड़ा था। साथ में थैली में सामान था। वह ऊपरी गुस्से से कहने लगी, “क्या आप भी चूहे बिल्ली का खेल खेलने लगते है, बताइए क्या जरुरत थी ये सब करने की, बच्चो के बिना घर अच्छा लगता है क्या।”
वह कुछ और कहती कि उसने उसे चुप करा दिया और टीवी चालू करके रिमोट हाथ मे पकड़ाकर रसोई में चला गया। इधर इसका मन खुद को धिक्कार रहा था।
“ये इतना कुछ कर रहे और तुझे याद भी नही कि आज क्या है?”
तीन घंटे की रेलमपेल के बाद वह उसकी मनपसंद बिरयानी बनाने में कामयाब रहा। दोनो खाकर उठे तो सारे रसोई की सफाई भी उसने खुद ही की।
अब उसे चिढ़ होने लगी थी। खीजकर उसने कहा “अब बता भी दो कि आज क्या है?”
“तुम्हारे हिस्से का इतवार” पान लगाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा।