
चिलचिलाती ज्येष्ठ की दोपहरी हो या सावन की घनघोर बारिश हो, सरला अपने बेटे आलेख की स्कूल बस के इन्तजार में समय से पहले बस स्टॉप पे आकर खड़ी हो जाती थी। पल्लू से पसीना पोछती या फिर बारिश की बूंदे हटाते हुए वो बार बार सड़क में दूर तक निगाह दौड़ाती रहती।
बस स्टॉप से आलेख को लेकर घर पहुंचने तक उसे लगभग सात आठ मिनट का समय लगता था। लेकिन फिर भी वह साथ मे स्टील के एक छोटे डिब्बे में आलेख के पसन्द की कोई मिठाई या नमकीन ले आती थी। बस से उतरते ही आलेख जब मां के हाथों से वो डिब्बा झपट लेता तो सरला मुस्कुराते हुए उसे निहारते रहती।
गांव की पाठशाला में पांचवी तक पढ़ी सरला किताबो में लिखी बातें तो आलेख को नहीं समझा पाती थी पर जीवन मे पढ़ाई लिखाई के महत्व को वो काफी अच्छे से समझती थी।
यूं सत्ताईस साल बीत गए थे। नन्हा सा अब आलेख बड़ा होकर वैज्ञानिक बन चुका था। पिछले पांच सालों से वो यूरोप में था। साथ काम करने वाली मीनाक्षी को आलेख पसन्द करने लगा था। मीनाक्षी एक बड़े सरकारी अधिकारी की बेटी थी। फोन पे बताया था आलेख ने मां को मीनाक्षी के बारे में।
अब वो देश लौट रहा था। मीनाक्षी भी साथ आ रही थी। सरला हवाई अड्डे के बाहर बेटे और होने वाली बहु का इन्तजार कर रही थी। उसे स्कूल के वो दिन याद आ रहे जब वो बस स्टॉप पे बस के आने का इन्तजार करती थी। मीनाक्षी के घर वाले भी एयरपोर्ट के एग्जिट गेट में आ गए थे। उन्होंने हाथों में खूबसूरत फूलों का बुके लिया हुआ था आलेख और मीनाक्षी के स्वागत के लिए।
पर बेचारी सरला को ये बुके ऊके का गणित कहां समझ आता था। वो तो आज भी आँचल में छुपा कर ले आयी थी स्टील का एक डिब्बा और उसमे आलेख की मन पसन्द सोम पापड़ी।
जहाज उतर चुका था। एग्जिट गेट में मेहमानों का इन्तजार कर रहे लोगो की हलचल बढ़ गयी थी। सारे लोग गेट के मुंह पे जमा हो गए थे, पर सरला जाने क्यो धीरे धीरे पीछे सरक रही थी। स्वागत के अंग्रेजी तौर तरीके, ये बड़े बड़े लोगो का अंदाज कहां था, उसके पास। दुनियादारी की दौड़ में बेटे को आगे कर चुकी सरला शायद खुद कही पीछे रह गयी थी।
अचानक उसके आँचल में छिपा डिब्बा किसी ने झपटा तो वो एकदम से घबरा गई। पर अगले ही पल जैसे उसकी आंखों के समक्ष कितना सुखद पल आ खड़ा हुआ था। सामने आलेख खड़ा था बचपन वाली उसी मुस्कान के साथ।
आलेख ने मां के पांव छुए और जल्दी जल्दी खोलने लगा स्टील का वो डिब्बा, चारो सोम पापड़ी वो एक साथ हाथ के पंजो में समेटने लगा तो मीनाक्षी उससे अपना हिस्सा छीनने लगी।
“इसमे मांजी मेरे लिए भी लेकर आई है” — बोलते हुए आलेख और मीनाक्षी छोटे बच्चों की तरह एक दूसरे से झगड़ते झगड़ते माँ को लिपट चुके थे।
सरला निश्चिंत हो चुकी थी कि दुनिया का नामचीन वैज्ञानिक बन चुका आलेख अन्दर से आज भी बालकपन का वही रूप लिए हुए है।
“बहन जी हो सके तो इस सोम पापड़ी में चासनी बन कर घुला आपका वात्सल्य और आपके संस्कार में एक छोटा हिस्सा मेरी बेटी मीनाक्षी को भी दे दीजिए.” — गुलदस्तों को एक तरफ रखते हुए मीनाक्षी के ताकतवर पिता हाथ जोड़ सरला के सामने खड़े थे।
सभी की आंखें भींगी हुईं थीं मगर खुशी से।