कल रविवार का दिन था। घर के बाहर अखबार पढ़ने के बाद राजेश जी बरामदे में बैठे रेडियो पर गानें सुन रहे थे। एकाएक उनके कानों में इकतारे की धुन के साथ साथ लोक संगीत के बोल घुल गये।
आँखे खोलकर उन्होने आवाज की दिशा में देखा। दरवाजे पर खड़ा एक बूढ़ा याचक कुछ गाते हुए इकतारा बजा रहा था।
वह दरवाजे तक गये और उसे वहीं बाहर बने चबूतरे पर बैठने के लिए कहा।
“बहुत अच्छा गाते हो, आप कहाँ से हो?” उसके बैठते ही उन्होनें सवाल किया।
“बहुत दूर से हैं बाबूजी। हमारे पुरखे अपने जमाने के बहुत बड़े लोक कलाकार थे। बस उनसे ही थोड़ा बहुत सीख लिया।” बूढ़े ने इज्जत मिलते ही अपना परिचय दिया।
“तो यहाँ शहर में कैसे ?” राजेश जी ने अगला प्रश्न किया।
“अब इस कला की कहाँ कोई कद्र है बाबूजी ? गाँव में पेट भरना मुश्किल हो गया और कोई दूसरा काम हमें आता नही इसलिए यहाँ शहर में इसके सहारे माँगकर गुजारा कर लेते हैं।” बूढ़े ने माथे का पसीना पोंछा।
“तो सुना दो कुछ…” कहते हुए राजेश जी भी वहीं चबूतरे पर बैठ गये।
बूढ़े ने पहले तो हैरानी से देखा, फिर आश्वस्त होने पर संगीत शुरू किया। उसे गाते देख उसके आसपास और लोग भी जुड़ने लगे। अपनी आँखें मूंदकर वह लगभग आधे घंटे तक अपने इकतारे के साथ लोक धुनें बिखेरता रहा।
समाप्ति पर आँखे खोली तो आसपास तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी।
राजेश जी ने जेब से निकालकर उसे सौ का नोट देना चाहा। बूढ़े ने हाथ जोड़कर मना करते हुए कहा ‘बाबूजी, आया तो पैसों की आस में ही था मगर अब पैसे नही लूँगा।’
“अरे मगर — तुम पैसों के लिए ही तो यह बजाते हो”
बूढ़े की आखों में आँसू आ गये। इकतारे को माथे से लगाते हुए वह रूँधे गले से इतना ही कह पाया “ज्यादा नही तो कम..पैसे तो रोज मिल ही जाते हैं मगर आज एक कलाकार को उसका सम्मान मिला है बाबूजी”
राजेश जी ने नोट उसके कुर्ते की जेब में रखते हुए कहा “रख लो काम आयेगें…और हाँ, अगले रविवार को भी जरूर आना…”
बूढ़े की आँखे बता रही थी कि सम्मान का ऑक्सीजन मिलते ही उसकी मरती हुई कला उसमें दोबारा जीवित हो रही थी
जहाँ विदेशो में हमारी संस्कृति की नकल करते हुए ऐसी किसी कला को दिखाने पर चलते लोग रुककर इनाम स्वरूप धन तथा ताली बजाकर प्रोत्साहन देते है वहीं हम भारतीय अपने मूल संस्कारो में से कलाकार को समय,प्रोत्साहन तथा आदर देने में संकीर्णता अनुभव करने लगे है। ध्यान दीजियेगा सच्चा कलाकार सम्मान का भूखा है धन का नही।