Story – कृष्णा-सुभद्रा संवाद

महाभारत युद्ध में अभिमन्यु की मृत्यु के बाद कृष्णा-सुभद्रा संवाद के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ…

‘जब वह मेरा था ही नहीं तो उसके चले जाने पर मेरा मन दुखी क्यों है?’ सुभद्रा बोली, ‘जहाँ दुख है, वहाँ कुछ दोष भी है ही।’

“ठीक कह रही हो। जहाँ दुख है, वहाँ दोष भी है।” कृष्ण बोले, ‘पर वह दोष तुम्हारे पूर्व जन्मों के पाप नहीं हैं, अपने पुत्र में तुम्हारी आसक्ति है। यह आसक्ति ही कष्ट देती है। यही दुख का कारण है।’

‘आप प्रेम को आसक्ति कहते हैं?”

“नहीं! प्रेम को आसक्ति नहीं कहता। मैं आसक्ति को ही आसक्ति कहता हूँ। कृष्ण सहज स्वर में बोले, “प्रेम, मोह और आसक्ति में अन्तर करना सीखो सुभद्रे !”

‘क्या अन्तर है भैया उनमें?”

‘द्वारका में अभिमन्यु और द्रौपदेयों के पालन-पोषण के लिए जो कष्ट तुमने सहा, और उस कष्ट में जो सुख पाया, वह तुम्हारा प्रेम है।’ कृष्ण बोले, ‘उन पर तुम जितना अधिकार जताओगी, उन्हें अपने साथ बाँधकर रखने का जितना प्रयत्न करोगी, और उनके विकास के मार्ग में जितनी बाधा तुम बनोगी, वह तुम्हारा मोह होगा।”

“और आसक्ति?”

‘अपना जीना स्थगित कर, उनके माध्यम से जीने का प्रयत्न और इस प्रक्रिया में स्वयं पाया गया कष्ट तथा उनको दिया गया क्लेश तुम्हारी आसक्ति होगी। कृष्ण बोले, ‘मोह और आसक्ति के कारण दुख होता है, प्रेम के कारण नहीं। प्रेम सबको मुक्त करता है। वह न स्वयं बैधता है, न औरों को बाँधता है। अधिक-से-अधिक संख्या में जीवों से प्रेम करो सुभद्रे। किन्तु किसी के प्रति मोह मत पालो और आसक्ति तो ईश्वर के सिवाय और किसी में होनी ही नहीं चाहिए।”

सुभद्रा ने उनकी ओर देखा और जैसे उसके मन का क्षोभ एक बार ही फूट पड़ा, ‘यह ईश्वर का कैसा न्याय है कि धर्मराज युधिष्ठिर जैसे सात्विक और पवित्र जीवन जीनेवालों को कष्ट दिया जाये और दुर्योधन जैसे पापियों को राजपाट का सुख? ऐसे में ईश्वर पर विश्वास कौन कर पाएगा?‘…

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