Story – पद

श्री ईशान महेश की प्रभावशाली पुस्तक “भरत की साधना” में सीता और वन कन्या जिसका नाम ‘बड़ी’ है, के बीच का संवाद केवल प्राचीन युग में पदनाम के महत्व और उसके प्रति लोगों के लगाव और भ्रम को ही उजागर नहीं करता, बल्कि आज की दुनिया में भी रिटायर्ड लोगों में इसी तरह के भ्रम को दर्शाता है.

मैंने सोचा, मुझे किताब के इस छोटे, गहन हिस्से को अपने सभी पाठकों के साथ ज़रूर साझा करना चाहिए।

“और यह सब किसलिए बोल रही हो? मेरे सम्मान के लिए या मेरे अहंकार को बढ़ाने के लिए।” सीता ने हँसकर वातावरण में छाए गंभीरता के घुम्मे को छाँटना चाहा।

“ऐसी बात नहीं है महारानी!”

“बस, मेरे लिए यह ‘महारानी’ शब्द अब तुम्हारा अंतिम शब्द होना चाहिए। मैंने देखा है कि अधिकारी अपने पदों से निवृत्त हो जाते है और सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी लोग उनको प्रसन्न करने के लिए सेनाध्यक्ष, न्यायमूर्ति, मंत्री महोदय, प्रधानमंत्री जी, राज्यपाल जी और इस प्रकार से न जाने उनसे संबंधित उनके भूतपूर्व पदों के संबोधनों से उनको पुकारते चले आते हैं। जैसे वह व्यक्ति न होकर एक पद हो। और वे लोग भी इसका विरोध नहीं करते। वे स्वयं को उन पदों के द्वारा पुकारे जाने से अपने अहंकार को तुष्ट करते रहते हैं। वे इस भ्रम में बने रहना चाहते है कि संसार आज भी उनको तथा उनके द्वारा किए गए कार्यों से इतना प्रभावित है कि वह आज भी यह स्वीकार नहीं कर रहा कि वे सेवानिवृत्त हो गए हैं। वे उन पदों में अपनी महानता के लक्षणों के भ्रम को बनाए रखना चाहते हैं।” सीता के स्वर में गहराई थी, चिंतन था।

“महारानी’ और ‘सीता’ में अंतर क्या है?” बड़ी ने अपने प्रश्न को बिना किसी भूमिका के रख कर यह संकेत दे दिया कि वह सहज होती जा रही है।

“‘महारानी’ एक पद है। ‘सीता’ एक निजता है। सीता एक अपनत्व है। सीता एक सहजता है। सीता एक मनुष्य है। जैसी तुम हो, वैसी ही सीता है।”

“पर सीता का संबंध श्रीराम से है।”

“सीता, श्रीराम की अर्धांगिनी है।”

“परन्तु राम राज-परिवार से हैं।”

“राम अब वनवासी हैं। हम क्या थे यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। हम क्या हैं और क्या होते जा रहे हैं- महत्त्व इसका है। यदि हमारा होना हमारी चेतना के विकास में अधोगति पर है तो वह अशुभ है। यदि हम उर्ध्वगामी हैं तो वह शुभ है।” सीता ने मुसकराकर बड़ी की ओर देखा।

“मैं समझी नहीं।” बड़ी धीरे से बोली।

“एक व्यक्ति कल तक चोर था और आज वह चोर न रहकर साधु हो गया तो उसको ‘चोर’ कहना उचित नहीं। इसी प्रकार एक व्यक्ति कल तक साधु था और वर्तमान में चोर हो गया तो उसे ‘साधु’ कहना भी उचित नहीं। व्यक्ति वर्तमान में जैसा है, उसे उसी रूप में जानना चाहिए। हम वर्तमान मे वनवासी हैं-तो हैं। यदि हमने राजपरिवार के अहंकार को इन वनों में भी ढोना है तो फिर अयोध्या ही में रहना उचित था।”

बड़ी, अवाक् होकर सीता की ओर देखती रही।

सीता का यह कथन, ‘हम क्या थे यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। हम क्या हैं और क्या होते जा रहे हैं- महत्त्व इसका है,’ वास्तव में इस उपन्यास का सार है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम भी आज उन लोगों का ‘अहंकार’ बढ़ा रहे हैं जो सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने पूर्व पदों में जीना चाहते हैं? यह कहानी हमें सिखाती है कि पद चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, सहजता, अपनत्व और मानवीय चेतना का उर्ध्वगामी होना ही जीवन का वास्तविक मूल्य है। 

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