“अम्मा का तीसरा महीना पूरा हो गया ,अब इन्हें , बड़े भैया के यहाँ छोड़ आओ।”
” क्यों…… अगर यहीं बनीं रहें तो क्या होगा ?”
“होगा क्या ….. देख तो रहे हों ,कितनी बेगार लगी रहती है सुबह से। मैं तो बंधुआ सी हो गई हूँ।”
” क्या …. बेगार .. । मैं कहीं नहीं जाता छोड़ने । इस उम्र में कहाँ पटक आऊँ उन्हें। शहर है, हारी बीमारी में चाक चौबंद सभी व्यवस्थायें तो बन जाती हैं यहाँ । वहाँ गाँव में कितना परेशान होते हैं भैया।”
“तय तो यही हुआ था। तीन – तीन महिने दोनों जगह रहेंगी अम्मा।”
“तय भी तुम्हारी वजह से ही हुआ था। तुम नाटक न करतीं तो कुछ नहीं होता। कितनी बदनामी हुई थी बाद में, वो भी तो देखो ।”
“हमें कुछ नहीं देखना, पहले आप ये बताओ सोने की चूड़ी कहाँ कर दी अम्मा ने? न सोना, न चाँदी, न खेती बाड़ी से कुछ मिलना। ये भ्रात भक्ति अपने समझ नहीं आई।”
“तुम कुछ समझती क्यों नहीं, आज हम जो कुछ हैं भाई साहब की वजह से ही हैं। उन्होंने ही मुझे आगे पढ़ाने पिता जी को समझाया था। आज उनके लड़के की फीस के लिए अम्मा ने हमसे पूछ कर चूड़ी उन्हें दे दी तो क्या पहाड़ टूट पड़ा। रहा खेती का, तो मैंने ही छोड़ दिया है। उसी खेती से हम बने हैं।
याद है, भरी ठंड में भैया खेत में पानी देकर रात गुजारते थे। मैं उन दिनों शहर में था।”
” लाला …… अब मुझे गाँव छोड़ आओ, हो गए होंगे तीन महिने।” – अम्मा ने कांपते स्वर में कहा ।
“नही अम्मा अब तुम्हें कहीं नहीं जाना। ये मेरा निर्णय है।”
अम्मा ने चश्मा उतार कर एक बार मुन्ना की ओर देखा।
“देख क्या रही हो …? अम्मा।”
“बहू से पूछ लिया, उसे कोई परेशानी तो नहीं।”
“उसकी माँ भी यहाँ आ रही है, सभी भाई झगड़ रहे हैं, कौन रखेगा माँ को?” – “मैंने कह दिया है, मेरे पास भेज दो।”
रज्जो खिसियाते हुए अंदर चली गयी।
“ये निर्णय भी तेरा ठीक है।”
अम्मा ने ये कहते हुये आँख बंद कर आँसू पी लिए।