आज मैं श्री ईशान महेश द्वारा लिखित “वचन” से एक सुंदर अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसमें सीता और राम की पहली मुलाकात का वर्णन है। यह मुझे बहुत मार्मिक लगा और इसे इतनी खूबसूरती से लिखा गया है कि मैं इसे आप सभी के साथ साझा करने से खुद को रोक नहीं पाया।
यह छोटा सा अंश उस बिंदु से शुरू होता है जहाँ सीता वाटिका में गौरी पूजा के लिए जाने की तैयारी कर रही है।
“वाटिका में आज तक तो कोई अतिथि ठहरा नहीं। तुमको भ्रम हुआ है सारंगे!”
“आप सत्य कह रही हैं, किंतु यह जानकारी प्रामाणिक है।” सारंगा बोली।
“तो फिर तुझे यह भी ज्ञात होगा कि ये विरले अतिथि हैं कौन?” – सीता मुसकराई।
“ब्रह्मर्षि विश्वामित्र पधारे हैं।” सारंगा बोली
“ओह! तब तो हमारी वाटिका कृतार्थ हुई। चल, पूजा का थाल मँगवा। ऋषिश्रेष्ठ का पूजन कर आशीर्वाद लेने चलेंगे और फिर माँ गौरी का पूजन। नियम भंग नहीं होना चाहिए।” सीता ने प्रेम से सांरगा के गाल पर हाथ फेरा।
तभी अवनि पूजा का थाल लिए आ गई।
“तुझे कैसे पता चला कि मैंने तुझे स्मरण किया है?” सीता ने पूछा।
“पूजा का थाल लेकर लौट रही थी तो राजमाता ने कहा कि सीता से कहो कि पहले मुनिवर का पूजन करे और फिर गौरी पूजन।” – अवनि बोली।
“देखा!” सीता ने सारंगा की ओर देखा, “गुरुवर विश्वामित्र के दर्शन होना तो परम सौभाग्य की बात है। आओ, चलें और अपने सौभाग्य को सराहें।”
विश्वामित्र कुटीर के बाहर ही बैठे थे। सीता ने उनकी अभ्यर्थना की। अपना परिचय दिया और उनके चरणों में अपनी सखियों सहित बैठ गई।
“ये तुम्हारी बहनें हैं क्या?” विश्वामित्र ने सारंगा और अवनि की ओर देखकर पूछा।
“सखियाँ बहनें ही तो होती हैं गुरुवर!” सीता मुसकराई।
“हम सीता की सेविकाएँ हैं।” सारंगा बोली, “देवी हमको सखी का मान देती हैं और बहनों से बढ़कर स्थान देती हैं।”
“निश्चित रूप से तुम दोनों ने पूर्व जन्मों में अनंत-अनंत पुण्यों को संचित किया है जो तुमको सीता ने सखी रूप में स्वीकार किया है।” विश्वामित्र ने सारंगा और अवनि को आशीर्वाद दिया और सीता की ओर देखकर बोले, “तुम मुझसे कुछ कहना चाहती हो क्या?”
“आपके दर्शन में सब हो गया।” सीता ने हाथ जोड़ दिया।
“किसी विशेष उद्देश्य से आना हुआ हो तो अपना मनोरथ निःसंकोच कह दो।” विश्वामित्र ने सीता को संकोच से बाहर लाना चाहा।
“गुरुवर! वाटिका के गौरी मंदिर में पूजन हेतु आना मेरा नियम है। आज आपके पधारने का सुंदर समाचार मिला तो स्वयं को आपके दर्शन करने के सौभाग्य से वंचित नहीं करना चाहती थी। वैसे आपका शुभागमन किसी विशेष उद्देश्य से हुआ है अथवा यह एक सहज तीर्थ यात्रा है।”
“तीर्थ तो मेरे साथ चल रहा है सीते!” विश्वामित्र मुसकराए।
“इसमें कोई संदेह नहीं कि आप चलते-फिरते तीर्थ हैं।” सीता ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ दिए।
“मैं स्वयं को तीर्थ कहकर उस अहंकार के प्रेत को फिर से अपनी सवारी नहीं करने देना चाहता, जिसे मैं युगों पहले उतार चुका हूँ।”
“तो फिर आप किस तीर्थ की बात कर रहे हैं?” सीता ने जिज्ञासा की।
“अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम की। राम ही वह तीर्थ है पुत्री और वह मेरे साथ यात्रा कर रहा है।” विश्वामित्र का स्वर आनंदित था।
“आप एक राजकुमार को ‘तीर्थ’ कह रहे हैं ऋषिश्रेष्ठ? आश्चर्य हो रहा है।” सीता के स्वर में विस्मय था और उस विस्मय में अविश्वास, “आप सरीखा ब्रह्मर्षि किसी राजकुमार को साक्षात् तीर्थ कहे तो इसका आशय ग्रहण करने में मेरी बुद्धि स्वयं का बहुत छोटा अनुभव कर रही है। उसमें यह बात समा ही नहीं रही।”
विश्वामित्र ने संक्षेप में राम की अब तक की सारी यात्रा सीता को सुनाई।
“गुरुदेव! यदि यह सत्य है तो निश्चित रूप से आप तीर्थ के साथ ही यात्रा कर रहे हैं।” सीता नतमस्तक हो उठी।
“गुरुदेव! हमें भी तीर्थ के दर्शन कराइए न।” सारंगा चहकी।
“कल विधिवत् परिवार के सभी सदस्यों से राम का परिचय कराऊँगा। राम के साथ उसका अनुज लक्ष्मण भी है। अभी वे शतानंद के साथ उपवन विहार कर रहे हैं।”
“गुरुदेव! यदि अनुमति हो तो मैं गौरी पूजन हेतु प्रस्थान करूँ।” सीता ने पूछा।
“अवश्य!” विश्वामित्र ने आशीर्वाद के रूप में अपना हाथ सीता और उसकी सेविकाओं के सिर पर रख दिया।
सीता अपनी सेविकाओं के साथ चलने के लिए उठ गई।
“पूजन के बाद गौरी से क्या माँगती हो सीते?” विश्वामित्र ने मुड़ने को तैयार सीता की ओर एक प्रश्न उछाल दिया।
सीता ठहर गई। उसे ऐसे आकस्मिक प्रश्न की तनिक भी अपेक्षा न थी।
“गौरी ने बिन माँगे मुझे सबकुछ दिया है। अज्ञातकुला धरती पुत्री को ‘जानकी‘ बना दिया। इसके बाद भी यदि कुछ माँगू तो वह लोभ होगा गुरुदेव ! कुछ माँगने से लजाती हूँ मैं।” सीता के स्वर में कृतज्ञता थी।
“अरी पगलि! माँ से माँगने में भी कोई लजाता है। यदि ऐसा है तो इसका एक ही अर्थ है कि वह उसे माँ मानता ही नहीं। आज मेरे कहने से कुछ माँग ले और माँ से लजाना छोड़ दे। आज तू जो माँगेगी, वह मिलेगा-यह मेरा वचन है।”
“यह आपकी अनुकंपा है देव। किंतु भीतर कुछ माँग हो तो माँगूँ। माँग ही खो गई है।” सीता मुसकराई और गौरी मंदिर की ओर सखियों सहित चल दी।
सीढ़ियाँ चढ़ती हुई सीता गौरी-मंदिर के गर्भ-गृह के द्वार पर पहुँची। उसके हाथ में पूजा का थाल था। उसने देखा कि एक अपरिचित युवक गौरी के स्वरूप को निहार रहा है। सीता की तरफ उसकी पीठ थी। शतानंद को वह अच्छी तरह पहचानती है। यह शतानंद तो है नहीं। फिर कौन है? इस अति सुरक्षित परिसर में किसी भी अज्ञात का प्रवेश पूर्णतः वर्जित है। फिर यह कौन है? यदि शतानंद ने गुरुकुल के किसी युवा पुरोहित को भेजा होता तो उसकी पूर्व सूचना सीता को तो अवश्य ही होती, क्योंकि यह उपवन सीता के दिशा-निर्देशों में सजता-सँवरता है।
सीता के पग जिज्ञासा में आगे बढ़े। उस युवक ने मंदिर का घंटा बजाया। गौरी को प्रणाम किया और मुड़ा।
मुड़ते ही सीता की दृष्टि उस युवक के गुरुत्वाकर्षण से बँध गई और दैवी-इच्छा से अनायास ही उसके अधर धीरे से पुकार उठे ‘राम’।
सीता को ऐसा लगा जैसे उसके अधर मंदिर की घंटी हो और उसकी जीभ के प्रहार से घंटी बज उठी और गूँज के रूप में उठती ‘राम’ की अनुरणन ध्वनि से उसका पूरा अस्तित्व गुंजायमान हो उठा।
सीता का रोम-रोम, राम-राम पुकार रहा था। विश्वामित्र ने राम के जिस रूप का वर्णन किया था-यह वही रूप तो है। सीता की दृष्टि राम के मुख से हट ही नहीं रही थी। उसके भीतर कोई उसे कह भी रहा था कि सीते! तू यह क्या कर रही है? किंतु सीता को इस समय ‘राम’ के अतिरिक्त न कुछ दिखाई दे रहा था और न सुनाई ही दे रहा था। उसने राम जैसी दिव्यता जीवन में कभी नहीं देखी थी।
जब विश्वामित्र ने कहा था कि वे राम के रूप में तीर्थ को साथ लेकर डोल रहे हैं तो सीता के लिए इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं था। वह मान रही थी कि विश्वामित्र अतिशयोक्ति और आत्मीयता में ऐसा कर रहे हैं, किंतु राम के दर्शन करने के बाद सीता का मन कर रहा था कि वह दौड़कर विश्वामित्र के पास जाए और प्रसन्नता से नाचती हुई कहे कि ऋषिश्रेष्ठ ! आपके पहचानने की शक्ति क्षीण पड़ गई है। राम तीर्थ नहीं हैं। वे तीर्थों से भी पार की कोई अज्ञात शक्ति है। आपने तो उनके लिए बहुत ही सामान्य शब्द चुन लिया।
सीता ने देखा कि राम भी उसे अपलक देख रहे हैं। सीता को आश्चर्य हो रहा था कि उसके साथ यह क्या हो रहा है कि आसपास के सभी दृश्य अदृश्य हो गए हैं और केवल राम ही उसके समक्ष हैं।
राम, सीता को देखकर मुसकराए। सीता को लगा जैसे उसके चिदाकाश में अनंत चपलाएँ चमकी हों। राम ने अपने हाथ जोड़े। उनको अपने मस्तक पर लगाया और सीता को प्रणाम करके मंदिर की सीढ़ियाँ उतरने लगे।
सीता मुड़कर राम को निहारती रही। ऐसा लग रहा था जैसे वनराज अपनी मंथर गति से निर्भय होकर विहार कर रहे हों। राम के अंग-प्रत्यंग से झरते दिव्यता के प्रकाश को सीता अनुभव कर रही थी। वह राम को तब तक देखती रही, जब तक की राम उसकी दृष्टि से ओझल नहीं हो गए।
आँखों के आगे से राम के ओझल होते ही सीता ने अनुभव किया कि उसका पूरा शरीर काँप रहा है। हाथ में पकड़ा पूजा का थाल यदि अवनि ने आगे बढ़कर थाम न लिया होता तो वह भूमि पर गिर ही गया होता।
“आप स्वस्थ तो हैं देवि!” अवनि के स्वर में घबराहट थी।
सीता ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने अनुभव किया कि उसकी वाक् शक्ति समाप्त हो गई है। उसने अवनि के हाथ से पूजा का थाल लिया और मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने से पहले सारंगा और अवनि को बाहर ही रुकने का सांकेतिक आदेश दिया।
मंदिर में प्रवेश करते ही गौरी की प्रतिमा के सम्मुख बैठते ही जैसे सीता के भारी हुए हृदय के पीछे ठहरे रुदन की ऊर्जा को मार्ग मिल गया।
वह बिना किसी दुख के गौरी के सम्मुख फूट-फूटकर रोती रही और रोते-रोते उनके सम्मुख वहीं पड़ गई।
उसे गौरी में भी राम दिख रहे थे। उसकी आँखें किसी मद के प्रभाव जैसी भारी होकर बंद हो गई थीं। बंद आँखों में उसे विश्वामित्र का हँसता हुआ मुख दिखाई दिया। वे कह रहे हैं कि आज मेरे कहने से गौरी से कुछ माँग ले और माँ से लजाना छोड़ दे। आज तू जो माँगेगी, वह मिलेगा यह मेरा वचन है।
सीता ने किसी प्रकार अपनी आँखें खोलीं और गौरी की प्रतिमा को देखकर बोली, “माँ! आजतक तुमसे कुछ नहीं माँगा। आज भी नहीं माँगूँगी। तू माँ है तो तुझसे क्या माँगना। माँ को तो अपनी संतान की प्रत्येक मनोकामना ज्ञात होती है। नहीं माँ, मैं तुमसे कुछ न माँगूँगी।” सीता ने अपना सिर गौरी के चरणों पर टिका दिया।
सीता का पूरा अस्तित्व राम के नाम से गूँज रहा था और राम का मुसकराता श्रीमुख उसके नयनों में बसा हुआ था। उस आविष्ट अवस्था में उसके मुख से निकला, “मुझे यह सब क्या हो रहा है हे-राम !”
स्रोत: पुस्तक “वचन” – ईशान महेश
“ऐसी सुन्दर कृति रचने वाले महात्मा को कोटि-कोटि नमन। ” – जय श्री राम